Monday, February 10, 2014

श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ‍गीता-सार Gita in nutshell अध्याय 9 राजविद्याराजगुह्ययोग

   अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप । अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि ॥
 हे परंतप! इस उपयुक्त धर्म में श्रद्धारहित पुरुष मुझको न प्राप्त होकर मृत्युरूप संसार चक्र में भ्रमण करते
रहते हैं॥3॥
O Arjun, those who have no faith in this knowledge do not attain Me and follow the cycles of birth and death. (9.03)

मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना । मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेषवस्थितः ॥
  मुझ निराकार परमात्मा से यह सब जगत्‌ जल से बर्फ के सदृश परिपूर्ण है और सब भूत मेरे अंतर्गत संकल्प के आधार स्थित हैं, किंतु
वास्तव में मैं उनमें स्थित नहीं हूँ॥4॥
 This entire universe is an expansion of Mine. All beings depend on Me. I do not depend on them (because
I am the highest of all).  (9.04)

 न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्‌ । भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः ॥
वे सब भूत मुझमें स्थित नहीं हैं, किंतु मेरी ईश्वरीय योगशक्ति को देख कि भूतों का धारण-पोषण करने वाला और भूतों को उत्पन्न करने वाला भी मेरा आत्मा वास्तव में भूतों में स्थित नहीं है॥5॥
Look at the power of My divine mystery; in reality, I --- the sustainer and creator of all beings --- do not depend on them, and they also do not depend on Me. (9.05)

    यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान्‌ । तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय ॥
  जैसे आकाश से उत्पन्न सर्वत्र विचरने वाला महान्‌ वायु सदा आकाश में ही स्थित है, वैसे ही मेरे संकल्प द्वारा उत्पन्न होने से संपूर्ण भूत मुझमें स्थित हैं, ऐसा जान॥6॥
Perceive that all beings remain in Me (without any contact or without producing any effect) as the mighty wind, moving everywhere, eternally remains in space. (9.06)

 सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्‌ । कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्‌ ॥
हे अर्जुन! कल्पों के अन्त में सब भूत मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात्‌ प्रकृति में लीन होते हैं और कल्पों के आदि में उनको मैं फिर रचता हूँ॥7॥
  प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः । भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्‌ ॥
  अपनी प्रकृति को अंगीकार करके स्वभाव के बल से परतंत्र हुए इस संपूर्ण भूतसमुदाय को बार-बार उनके कर्मों के अनुसार रचता हूँ॥8॥
All beings merge into My Aadi Prakriti (primary material Nature) at the end of a Kalp (or a cycle of 4.32 billion years),
O Arjun, and I create them again at the beginning of the next Kalp. (9.07)
 I create the entire multitude of beings again  and again with the help of My material Nature (Prakriti or Maya). These
 beings are under control of the modes (Gunas) of material Nature (Prakriti). (9.08)

   मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरं । हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ॥
  हे अर्जुन! मुझ अधिष्ठाता के सकाश से प्रकृति चराचर सहित सर्वजगत को रचती है और इस हेतु से ही यह संसारचक्र घूम रहा है॥10॥
The divine kinetic energy (Maya) --- with the help of material Nature (Prakriti) --- creates all animate and inanimate objects under My supervision; thus, the creation keeps on going, O Arjun. (9.10)

सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढ़व्रताः । नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते ॥
  वे दृढ़ निश्चय वाले भक्तजन निरंतर मेरे नाम और गुणों का कीर्तन करते हुए तथा मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करते हुए और मुझको बार-बार प्रणाम करते हुए सदा मेरे ध्यान में युक्त होकर अनन्य प्रेम से मेरी उपासना करते हैं॥14॥
Persons of firm resolve worship Me with ever steadfast devotion by always singing My glories, striving to attain Me, and prostrating before Me with devotion. (9.14)

      ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ते यजन्तो मामुपासते। एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम्।।
  दूसरे ज्ञानयोगी मुझ निर्गुण-निराकार ब्रह्म का ज्ञानयज्ञ द्वारा अभिन्नभाव से पूजन करते हुए भी मेरी उपासना करते हैं और दूसरे मनुष्य बहुत प्रकार से स्थित मुझ विराट स्वरूप परमेश्वर की पृथक भाव से उपासना करते हैं।।15।।
 Some worship Me by acquiring and propagating Self-knowledge. Others worship the infinite as the One in all (or non-dual), as the master of all (or dual), and in various other ways. (9.15)

  भगवान के स्वरूप का वर्णन 
अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्‌ । मंत्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्‌ ॥
 क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, औषधि मैं हूँ, मंत्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ और हवनरूप क्रिया भी मैं ही हूँ॥16॥
पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः । वेद्यं पवित्रमोङ्कार ऋक्साम यजुरेव च ॥
 इस संपूर्ण जगत्‌ का धाता अर्थात्‌ धारण करने वाला एवं कर्मों के फल को देने वाला, पिता, माता, पितामह, जानने योग्य,  पवित्र ओंकार तथा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ॥17॥
गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्‌ । प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्‌॥
  प्राप्त होने योग्य परम धाम, भरण-पोषण करने वाला, सबका स्वामी, शुभाशुभ का देखने वाला, सबका वासस्थान, शरण लेने योग्य, प्रत्युपकार न चाहकर हित करने वाला, सबकी उत्पत्ति-प्रलय का हेतु, स्थिति का आधार, निधान (प्रलयकाल में संपूर्ण भूत सूक्ष्म रूप से जिसमें लय होते हैं उसका नाम 'निधान' है) और अविनाशी कारण भी मैं ही हूँ॥18॥
 I am the ritual, I am the sacrifice, I am the offering, I am the herb, I am the mantra, I am the clarified butter, I am the fire, and I am the oblation. (See also 4.24). I am the supporter of the universe, the father, the mother, and the grandfather. I am the object of knowledge, the sacred syllable “AUM”, and also the Rig, the Yajur, and the Saam Vedas. I am the goal, the supporter, the Lord, the witness, the abode, the refuge, the friend, the origin, the dissolution, the foundation, the substratum, and the immutable seed. (9.16-18)

  तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्‌णाम्युत्सृजामि च । अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन ॥
 मैं ही सूर्यरूप से तपता हूँ, वर्षा का आकर्षण करता हूँ और उसे बरसाता हूँ। हे अर्जुन! मैं ही अमृत और मृत्यु हूँ और सत्‌-असत्‌ भी मैं ही हूँ॥19॥
I give heat. I send, as well as withhold, the rain. I am immortality, as well as death. I am also both the absolute (Sat or Akshar) and the temporal (Asat or Kshar), O Arjun. (The Supreme Being has become everything. ) (9.19)

त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापायज्ञैरिष्ट्‍वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते। ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्‌ ॥
  तीनों वेदों में विधान किए हुए सकाम कर्मों को करने वाले, सोम रस को पीने वाले, पापरहित पुरुष (यहाँ स्वर्ग प्राप्ति के प्रतिबंधक देव ऋणरूप पाप से पवित्र होना समझना चाहिए) मुझको यज्ञों के द्वारा पूजकर स्वर्ग की प्राप्ति चाहते हैं, वे पुरुष अपने पुण्यों के फलरूप स्वर्गलोक को प्राप्त होकर स्वर्ग में दिव्य देवताओं के भोगों को भोगते हैं॥20॥
The doers of the rituals prescribed in the Vedas, the drinkers of the nectar of devotion, and whose sins are cleansed, worship Me by doing good deeds (Yajn) for gaining heaven. As a result of their meritorious deeds they go to heaven and enjoy celestial sense pleasures. (9.20)

   ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालंक्षीणे पुण्य मर्त्यलोकं विशन्ति। एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते ॥
  वे उस विशाल स्वर्गलोक को भोगकर पुण्य क्षीण होने पर मृत्यु लोक को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार स्वर्ग के साधनरूप तीनों वेदों में कहे हुए सकामकर्म का आश्रय लेने वाले और भोगों की कामना वाले पुरुष बार-बार आवागमन को प्राप्त होते हैं, अर्थात्‌ पुण्य के प्रभाव से स्वर्ग में जाते हैं और पुण्य क्षीण होने पर मृत्युलोक में आते हैं॥21॥
They return to the mortal world --- after enjoying the wide world of heavenly pleasures --- upon exhaustion of their good Karm (Punya). Thus following the injunctions of the three Vedas, persons working for the fruit of their actions take repeated birth and death.  (9.21)

         अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते । तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्‌ ॥
  जो अनन्यप्रेमी भक्तजन मुझ परमेश्वर को निरंतर चिंतन करते हुए निष्कामभाव से भजते हैं, उन नित्य-निरंतर मेरा चिंतन करने वाले पुरुषों का योगक्षेम (भगवत्‌स्वरूप की प्राप्ति का नाम 'योग' है और भगवत्‌प्राप्ति के निमित्त किए हुए साधन की रक्षा का नाम 'क्षेम' है) मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूँ॥22॥
I personally take care of both the spiritual and material welfare of those ever-steadfast devotees who always remember and adore Me with single-minded contemplation. (9.22)

  पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति । तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥
 जो कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्धबुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादि मैं सगुणरूप से प्रकट होकर प्रीतिसहित खाता हूँ॥26॥
Whosoever offers Me a leaf, a flower, a fruit, or water with devotion, I accept and eat the offering of devotion by the pure-hearted. (9.26)
   समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः । ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्‌ ॥
  मैं सब भूतों में समभाव से व्यापक हूँ, न कोई मेरा अप्रिय है और न प्रिय है, परंतु जो भक्त मुझको प्रेम से भजते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें प्रत्यक्ष प्रकट  हूँ॥29॥
The Self is present equally in all beings. There is no one hateful or dear to Me. But, those who worship Me with love and devotion are very close to Me, and I am also very close to them.  (9.29)

 हे अर्जुन! तू निश्चयपूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता॥
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥
Be aware, O Arjun, that My devotee shall never perish or fall down

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