Monday, February 17, 2014

श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ‍गीता-सार Gita in nutshell अध्याय 10 विभूतियोग

  यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्‌ । असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥
 जो मुझको अजन्मा अर्थात्‌ वास्तव में जन्मरहित, अनादि (अनादि उसको कहते हैं जो आदि रहित हो एवं सबका कारण हो) और लोकों का महान्‌ ईश्वर तत्त्व से जानता है, वह मनुष्यों में ज्ञानवान्‌ पुरुष संपूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है॥3॥
 One who knows Me as the unborn, the beginningless, and the Supreme Lord of the universe, is considered wise among the mortals and becomes liberated from the bondage of Karm. (10.03)

  बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोहः क्षमा सत्यं दमः शमः । सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च ॥
अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः ।भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः ॥
 निश्चय करने की शक्ति, 
यथार्थ ज्ञान, 
असम्मूढ़ता, 
क्षमा, सत्य,
 इंद्रियों का वश में करना, 
मन का निग्रह तथा 
सुख-दुःख, उत्पत्ति-प्रलय और भय-अभय
 तथा अहिंसा, समता, संतोष तप (स्वधर्म के आचरण से इंद्रियादि को तपाकर शुद्ध करने का नाम तप है), दान, कीर्ति और अपकीर्ति- ऐसे ये प्राणियों के नाना प्रकार के भाव मुझसे ही होते हैं॥4-5॥
Discrimination, Self-knowledge, non-delusion, forgiveness, truthfulness, control over the mind and senses, tranquillity, pleasure, pain, birth, death, fear, fearlessness, nonviolence, calmness, contentment, austerity, charity, fame, ill fame --- these diverse qualities in human beings arise from Me alone. (10.04-05)

 Genesis 
महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा | मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः ॥
  सात महर्षिजन, चार उनसे भी पूर्व में होने वाले सनकादि तथा स्वायम्भुव आदि चौदह मनु- ये मुझमें भाव वाले सब-के-सब मेरे संकल्प से उत्पन्न हुए हैं, जिनकी संसार में यह संपूर्ण प्रजा है॥6॥
    The seven great sages, four Sanakas, and fourteen Manus from whom all the creatures of the world were born, originated from My potential energy. (10.06)

अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते ।
मैं वासुदेव ही संपूर्ण जगत्‌ की उत्पत्ति का कारण हूँ और मुझसे ही सब जगत्‌ चेष्टा करता है
I am the origin of all. Everything emanates from Me.

 satsang & its importance 
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्‌ । कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥
  निरंतर मुझमें मन लगाने वाले और मुझमें ही प्राणों को अर्पण करने वाले (मुझ वासुदेव के लिए ही जिन्होंने अपना जीवन अर्पण कर दिया है उनका नाम मद्गतप्राणाः है।) भक्तजन मेरी भक्ति की चर्चा के द्वारा आपस में मेरे प्रभाव को जानते हुए तथा गुण और प्रभाव सहित मेरा कथन करते हुए ही निरंतर संतुष्ट होते हैं और मुझ वासुदेव में ही निरंतर रमण करते हैं॥9॥
Understanding this, the wise adore Me with love and devotion (10.08), remaining ever content and delighted. Their minds remain absorbed in Me and their lives surrendered unto Me. They always enlighten each other by talking about Me. (10.09)

    तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्‌ । ददामि बद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥
  उन निरंतर मेरे ध्यान आदि में लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजने वाले भक्तों को मैं वह तत्त्वज्ञानरूप योग देता हूँ, जिससे वे मुझको ही प्राप्त होते हैं॥10॥
I give knowledge and understanding of metaphysical science --- to those who are ever united with Me and lovingly adore Me --- by which they come to Me. (10.10)
   तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः। नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥
  हे अर्जुन! उनके ऊपर अनुग्रह करने के लिए उनके अंतःकरण में स्थित हुआ मैं स्वयं ही उनके अज्ञानजनित अंधकार को प्रकाशमय तत्त्वज्ञानरूप दीपक के द्वारा नष्ट कर देता हूँ॥11॥
I, who dwell within their inner psyche as consciousness, destroy the darkness born of ignorance by the shining lamp of transcendental knowledge as an act of compassion for them. (10.11)

 अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः । अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ॥
  हे अर्जुन! मैं सब भूतों के हृदय में स्थित सबका आत्मा हूँ तथा संपूर्ण भूतों का आदि, मध्य और अंत भी मैं ही हूँ॥20॥
O Arjun, I am the Spirit (Atma) abiding in the inner psyche of all beings. I am also the beginning, the middle, and the end of all beings. (10.20)
 मैं अदिति के बारह पुत्रों में विष्णु और ज्योतियों में किरणों वाला सूर्य हूँ तथा मैं उनचास वायुदेवताओं का तेज और नक्षत्रों का अधिपति चंद्रमा हूँ॥21॥
मैं वेदों में सामवेद हूँ, देवों में इंद्र हूँ, इंद्रियों में मन हूँ और भूत प्राणियों की चेतना अर्थात्‌ जीवन-शक्ति हूँ॥22॥
 मैं एकादश रुद्रों में शंकर हूँ और यक्ष तथा राक्षसों में धन का स्वामी कुबेर हूँ। मैं आठ वसुओं में अग्नि हूँ और शिखरवाले पर्वतों में सुमेरु पर्वत हूँ॥23॥
 पुरोहितों में मुखिया बृहस्पति मुझको जान। हे पार्थ! मैं सेनापतियों में स्कंद और जलाशयों में समुद्र हूँ॥24॥
 मैं महर्षियों में भृगु और शब्दों में एक अक्षर अर्थात्‌‌ ओंकार हूँ। सब प्रकार के यज्ञों में जपयज्ञ और स्थिर रहने वालों में हिमालय पहाड़ हूँ॥25॥
मैं सब वृक्षों में पीपल का वृक्ष, देवर्षियों में नारद मुनि, गन्धर्वों में चित्ररथ और सिद्धों में कपिल मुनि हूँ॥26॥
उच्चैःश्रवसमश्वानां विद्धि माममृतोद्धवम्‌ । एरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम्‌ ॥
 घोड़ों में अमृत के साथ उत्पन्न होने वाला उच्चैःश्रवा नामक घोड़ा, श्रेष्ठ हाथियों में ऐरावत नामक हाथी और मनुष्यों में राजा मुझको जान॥27॥
आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक्‌ । प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः ॥
  मैं शस्त्रों में वज्र और गौओं में कामधेनु हूँ। शास्त्रोक्त रीति से सन्तान की उत्पत्ति का हेतु कामदेव हूँ और सर्पों में सर्पराज वासुकि हूँ॥28॥
Know Me as the celestial animals among the animals, and the King among men. I am the thunderbolt among weapons, and I am Cupid for procreation. (10.27-28)
        मैं नागों में (नाग और सर्प ये दो प्रकार की सर्पों की ही जाति है।) शेषनाग और जलचरों का अधिपति वरुण देवता हूँ और पितरों में अर्यमा नामक पितर तथा शासन करने वालों में यमराज मैं हूँ॥29॥
मैं दैत्यों में प्रह्लाद और गणना करने वालों का समय (क्षण, घड़ी, दिन, पक्ष, मास आदि में जो समय है वह मैं हूँ) हूँ तथा पशुओं में मृगराज सिंह और पक्षियों में गरुड़ हूँ॥30॥
 मैं पवित्र करने वालों में वायु और शस्त्रधारियों में श्रीराम हूँ तथा मछलियों में मगर हूँ और नदियों में श्री भागीरथी गंगाजी हूँ॥31॥
सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन । अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम्‌ ॥
 हे अर्जुन! सृष्टियों का आदि और अंत तथा मध्य भी मैं ही हूँ। मैं विद्याओं में अध्यात्मविद्या अर्थात्‌ ब्रह्मविद्या और परस्पर विवाद करने वालों का तत्व-निर्णय के लिए किया जाने वाला वाद हूँ॥32॥
I am the beginning, the middle, and the end of all creation, O Arjun. Among the knowledge I am knowledge of the supreme Self. I am logic of the logician. (10.32)

अक्षराणामकारोऽस्मि द्वंद्वः सामासिकस्य च । अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः ॥
 मैं अक्षरों में अकार हूँ और समासों में द्वंद्व नामक समास हूँ। अक्षयकाल अर्थात्‌ काल का भी महाकाल तथा सब ओर मुखवाला, विराट्स्वरूप, सबका धारण-पोषण करने वाला भी मैं ही हूँ॥33॥
 I am the letter "A" among the alphabets. I am the dual compound among the compound words. I am the endless time. I am the sustainer of all, and have faces on all sides (or I am omniscient). (10.33)
मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम्‌ । कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा ॥
  मैं सबका नाश करने वाला मृत्यु और उत्पन्न होने वालों का उत्पत्ति हेतु हूँ तथा स्त्रियों में कीर्ति (कीर्ति आदि ये सात देवताओं की स्त्रियाँ और स्त्रीवाचक नाम वाले गुण भी प्रसिद्ध हैं, इसलिए दोनों प्रकार से ही भगवान की विभूतियाँ हैं), श्री, वाक्‌, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा हूँ॥34॥
 I am the all-devouring death and also the origin of future beings. I am the seven goddesses (Devis) or guardian angels presiding over the seven qualities --- fame, prosperity, speech, memory, intellect, resolve, and forgiveness. (10.34)

 तथा गायन करने योग्य श्रुतियों में मैं बृहत्साम और छंदों में गायत्री छंद हूँ तथा महीनों में मार्गशीर्ष और ऋतुओं में वसंत मैं हूँ॥35॥
 मैं छल करने वालों में जूआ और प्रभावशाली पुरुषों का प्रभाव हूँ। मैं जीतने वालों का विजय हूँ, निश्चय करने वालों का निश्चय और सात्त्विक पुरुषों का सात्त्विक भाव हूँ॥36॥
I am gambling of the cheats, splendor of the splendid, victory of the victorious, resolution of the resolute, and goodness of the good. (10.36) 
वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः । मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः ॥
  वृष्णिवंशियों में (यादवों के अंतर्गत एक वृष्णि वंश भी था) वासुदेव अर्थात्‌ मैं स्वयं तेरा सखा, पाण्डवों में धनञ्जय अर्थात्‌ तू, मुनियों में वेदव्यास और कवियों में शुक्राचार्य कवि भी मैं ही हूँ॥37॥
मैं दमन करने वालों का दंड अर्थात्‌ दमन करने की शक्ति हूँ, जीतने की इच्छावालों की नीति हूँ, गुप्त रखने योग्य भावों का रक्षक मौन हूँ और ज्ञानवानों का तत्त्वज्ञान मैं ही हूँ॥38॥

यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन । न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्‌ ॥
 और हे अर्जुन! जो सब भूतों की उत्पत्ति का कारण है, वह भी मैं ही हूँ, क्योंकि ऐसा चर और अचर कोई भी भूत नहीं है, जो मुझसे रहित हो॥39॥
I am the power of rulers, the statesmanship of the seekers of victory, I am silence among the secrets, and the Self-knowledge of the knowledgeable. (10.38) I am the origin or seed of all beings, O Arjun. There is nothing, animate or inanimate, that can exist without Me.

   यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा । तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम्‌ ॥
  जो-जो भी विभूतियुक्त अर्थात्‌ ऐश्वर्ययुक्त, कांतियुक्त और शक्तियुक्त वस्तु है, उस-उस को तू मेरे तेज के अंश की ही अभिव्यक्ति जान॥41॥
The manifest creation is a very small fraction of the Absolute

There is no end of My divine manifestations, (10.40)
 Whatever is endowed with glory, brilliance, and power --- know that to be a manifestation of a very small fraction of My splendor. (10.41) 
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्‌ ॥
मैं इस संपूर्ण जगत्‌ को अपनी योगशक्ति के एक अंश मात्र से धारण करके स्थित हूँ॥42॥

 O Arjun? I continually support the entire universe by a small fraction of My divine power (YogMaya). (10.42) 

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