Monday, July 27, 2015

कभी कभी

कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है के ज़िन्दगी तेरी ज़ुल्फ़ों की नरम छाओं में
गुजरने पाती तो शादाब हो भी सकती थी यह तीरगी जो मेरी ज़ीस्त का मुक़द्दर है
तेरी नज़र की शु'आओं में खो भी सकती थी
अजब न था के मैं बेगाना-इ-आलम हो कर तेरे जमाल की रे'नाइयों में खो रहता
 तेरा गुदाज़ बदन तेरी नीम-बाज़ आँखें इन्ही हसीं फ़सानो में महो रहता
पुकारती मुझे जब तल्खियाँ ज़माने की तेरे लबों से हलावत के घूँट पी लेता
यात चिक्ति फिरती बरहना सर और मैं घनेरी ज़ुल्फ़ों के साये में छुप के जी लेता
मगर यह हो न सका और अब यह आलम है के तू नहीं तेरा ग़म तेरी जुस्तुजू भी नहीं
गुज़र रही कुछ इस तरह ज़िन्दगी जैसे इसे किसीके सहारे की आरज़ू भी नहीं
ज़माने भर के दुखों को लगा चूका हूँ गले गुज़र रहा हूँ कुछ अंजानी रह्गुज़ारों से
मुहिब साये मेरी सिम्त भरते आता है हयात-ओ-मौत के पर हॉल खर ज़ारों से
न कोई जदह न मंज़िल न रौशनी का सुराग भटक रही है ख्यालों में ज़िन्दगी मेरी
इन्ही ख्यालों में रह जाऊँगा कभी खो कर मैं जनता हूँ मेरी हमनफ़स
 मगर यूँही कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता