Sunday, December 22, 2013

श्रीकृष्ण भजन में कैसे अग्रसर हों

  जिस समय कृष्ण-भजनमें जीवकी रुचि होती है, उस समय जीवकी विषयोंके प्रति गाढ़ी आसक्ति रिहनेपर भी वह क्रमश: लुप्तप्राय: हो पड़ती है। उस समय वे अनासक्त भावसे आवश्यकतानुसार विषयोंको ग्रहण करते हुए उन विषयोंको कृष्ण-सम्बन्धी जानकर जो आचरण करते हैं, उसे युक्त-वैराग्य कहते हैं।
    जो लोग हरि-सम्बन्धी वस्तुओंको प्रापंचिक, 
मायामय जानकर जड़ीय मुक्तिकी कामनासे उनका त्याग कर देते हैं, उनका वैराग्य फल्गु या तुच्छ है। शरीरी जीवके लिए विषयोंका सम्पूर्ण रूपसे परित्याग करना संभव नहीं है। परन्तु विषयोंकी बहिर्मुखी प्रवृत्तिको दूरकर समस्त विषयोंमें भगवद् भाव रखते हुए उन्हें ग्रहण करनेसे उसे विषय-भोग नहीं कहा जाता।
    रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द—ये ही विषय हैं। 
संसारको इस प्रकार से देखना चाहिए कि संसारके समस्त रूप कृष्णसे सम्बन्धित दिखार्इ दें अर्थात समस्त जीवोंको भगवानके दास-दासीके रूपमें देखें। बागबगीचों और नदीयोंको कृष्णके विहारस्थलोंके रूपमें देखें। समस्त प्रकारके भोज्य पदाथोंको कृष्णके उपभोग योग्य नैवेधके रूपमें दर्शन करें, समस्त प्रकारके गन्धोंमें कृष्णप्रसादी गन्धकी उपलब्धि हो। इसीप्रकार समस्त प्रकारके रसोंको कृष्णके आस्वादनीय रसके रूपमें दर्शन करें, समस्त द्रव्य जिन्हें हम स्पर्श करते हैं, वे कृष्ण सम्बन्धी द्रव्य ही जान पड़ें और हरिकथा या उनके भक्तोंकी कथाका ही श्रवण किया जाय ।
ऐसी भावना होने पर 
विषयोंके प्रति भगवद-बहिर्मुख भावना नहीं होती। भोगोंमें जो सुख होता है, उसे स्वयं भोगनेकी प्रवृत्ति रहनेसे भक्तके हृदयमें भुक्ति प्रबल हो उठती है और भक्ति-पथसे उस साधकको च्युत कर देती है। दूसरी ओर संसारकी समस्त वस्तुओंको कृष्णकी सेवाके उपकरणके रूपमें ग्रहण करनेसे भुक्तिकी कामना सम्पूर्ण रूपसे दूर हो जाती है तथा शुद्ध-भक्ति प्रिकाशित हो जाती है। जैसे भुक्तिकी कामनाको दूर करना अत्यन्त आवश्यक है, वैसे ही मुक्तिकी कामनाको दूर करना सर्वतोभावेन कर्तव्य है।
मुक्तिके सम्बन्धमें कुछ निगूढ़ विचार हैं।
 शास्त्रोंमें पाँच 
प्रकारकी मुक्तिका उल्लेख देखा जाता है—
सालोक्य-सार्ष्टि-सारूप्य-समीप्यैकत्वमप्युत।
दीयमानं न गृह्णन्ति बिना मत्सेवनं जना:।।
श्रीकपिलदेवजी बोले—'हे माता! मेरे शुद्ध भक्तजन सालोक्य
सार्ष्टि, सारूप्य, सामीप्य और एकत्व—पाँच प्रकारकी मुक्ति दिये
जाने पर भी ग्रहण नहीं करते। वे केवल मेरी सेवा ही ग्रहण
करते हैं।
सालोक्य मुक्तिमें भगवानका लोक प्राप्त होता है। 
भगवानके समान ऐश्वर्यकी प्राप्तिका नाम सार्ष्टि है। भगवानकी निकटताकी प्राप्तिका नाम सामीप्य है। भगवान विष्णु जैसे चतुर्भुज रूप प्राप्तिको सारूप्य मुक्ति कहते हैं। सायुज्य प्राप्तिका नाम एकत्व भी है। सायुज्य मुक्ति दो प्रकारकी होती है-ब्रह्म-सायुज्य और र्इश्वर-सायुज्य। ब्रह्म-ज्ञानसे अन्तमें जीवोंको ब्रह्म-सायुज्य प्राप्त होता है। आध्यातिमक शास्त्रोंके अनुसार आचरण करने से ब्रह्म-सायुज्य प्राप्त होता है। पातंजल-योगका ठीक-ठीक अनुष्ठान करनेसे कैवल्यरूप र्इश्वर-सायुज्य की प्राप्ति होती है।
 भक्तोंके लिए ये दोनों 
प्रकारकी सायुज्य मुक्तियॉ अत्यन्त हेय हैं। जो लोग चरम अवस्थामें सायुज्य प्राप्त होनेकी आशा रखते हैं, वे भी भक्तिका आचरण तो करते हैं, परन्तु उनकी भक्ति अनित्य और धूर्ततापूर्ण होती है। वे लोग भक्तिको नित्य-धर्म नहीं मानते। वे तो भक्तिको केवल ब्रह्म-प्राप्तिका एक उपायमात्र मानते हैं।
उनकी दृष्टिमें ब्रह्म-प्राप्तिके पश्चात भक्ति ही नहीं रहती।
जो लोग सायुज्य मुक्तिको चरम फल मानते हैं, उनके हृदयमें शुद्ध-भक्तिका कभी भी निवास नहीं होता।

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