Sunday, October 21, 2012

कबीर के दोहे -3

24) साँई इतना दीजिए जामें कुटुंब समाय । मैं भी भूखा ना रहूँ साधु न भुखा जाय॥

25) जो तोको काँटा बुवै ताहि बोव तू फूल।
  तोहि फूल को फूल है वाको है तिरसुल॥

26) उठा बगुला प्रेम का तिनका चढ़ा अकास। तिनका तिनके से मिला तिन का तिन के पास॥

27) सात समंदर की मसि करौं लेखनि सब बनराइ। 
धरती सब कागद करौं हरि गुण लिखा न जाइ॥
28) साधू गाँठ न बाँधई उदर समाता लेय। आगे पाछे हरी खड़े जब माँगे तब देय॥ 
29) बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिल्य कोए। जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोए॥
30)जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं। प्रेम गली अति सॉंकरी, तामें दो न समाहिं।।

31) सोना, सज्‍जन, साधुजन, टूटि जुरै सौ बार। 
दुर्जन कुंभ-कुम्‍हार के, एकै धका दरार।।

32)जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान। मोल करो तलवार का, पड़ा रहने दो म्यान।।
33) माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर । कर का मन का डार दे, मन का मनका फेर ॥


34)जो तोको काँटा बुवै ताहि बोव तू फूल। तोहि फूल को फूल है वाको है तिरसुल॥
35) रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय । हीरा जन्म अमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥
36)माया दीपक नर पतंग, भ्रमि भ्रमि ईवै पडंत। 
कहै कबीर गुरु ज्ञान ते, एक आध उबरंत॥

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