Sunday, October 21, 2012

कबीर के दोहे 2

 12) माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर । कर का मन का डार दे, मन का मनका फेर ॥
 13) कबीर माला काठ की, कहि समझावै तोहि मन न फिरावै आपणां, कहा फिरावै मोहि 
 
14) कबीरा माला मनहि की, और संसारी भीख।  माला फेरे हरि मिले, गले रहट के देख।
15) कबीरा जपना काठ की, क्या दिखलावे मोय। हृदय नाम न जपेगा, यह जपनी क्या होय।

16) 
क्या भरोसा देह का, बिनस जात छिन मांह।  सांस-सांस सुमिरन करो और यतन कुछ नांह।
 17) सुख मे सुमिरन ना किया, दु:ख में करते याद । कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद ॥

 18) साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय । मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥
 17) धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय । माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥
 19) कबीरा ते नर अँध है, गुरु को कहते और । हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ॥

 20) जहां आप तहां आपदा, जहां संषय तहां रोग।

 21) रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय । हीरा जन्म अमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥
 22) दुःख में सुमिरन सब करे सुख में करै न कोय। जो सुख में सुमिरन करे दुःख काहे को होय ॥
 23) बडा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर। पंथी को छाया नही फल लागे अति दूर ॥


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