Tuesday, March 11, 2014

श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ‍गीता-सार Gita in nutshell अध्याय 16 दैवासुरसम्पद्विभागयोग

     अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः। दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्‌॥
  श्री भगवान बोले- भय का सर्वथा अभाव,  अन्तःकरण की पूर्ण निर्मलता,  तत्त्वज्ञान के लिए ध्यान योग में निरन्तर दृढ़ स्थिति और सात्त्विक दान ,  इन्द्रियों का दमन,  भगवान,  देवता और गुरुजनों की पूजा तथा अग्निहोत्र आदि उत्तम कर्मों का आचरण एवं वेद-शास्त्रों का पठन-पाठन तथा भगवान्‌ के नाम और गुणों का कीर्तन,  स्वधर्म पालन के लिए कष्टसहन और शरीर तथा इन्द्रियों के सहित अन्तःकरण की सरलता॥1॥
 (परमात्मा के स्वरूप को तत्त्व से जानने के लिए सच्चिदानन्दघन परमात्मा के स्वरूप में एकी भाव से ध्यान की निरन्तर गाढ़ स्थिति का ही नाम 'ज्ञानयोगव्यवस्थिति' समझना चाहिए)
   अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्‌। दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्‌॥
 मन, वाणी और शरीर से किसी प्रकार भी किसी को कष्ट न देना,  यथार्थ और प्रिय भाषण , अपना अपकार करने वाले पर भी क्रोध का न होना,  कर्मों में कर्तापन के अभिमान का त्याग,  अन्तःकरण की उपरति अर्थात्‌ चित्त की चञ्चलता का अभाव,  किसी की भी निन्दादि न करना,  सब भूतप्राणियों में हेतुरहित दया,  इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी उनमें आसक्ति का न होना,  कोमलता,  लोक और शास्त्र से विरुद्ध आचरण में लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव॥2॥
(अन्तःकरण और इन्द्रियों के द्वारा जैसा निश्चय किया हो, वैसे-का-वैसा ही प्रिय शब्दों में कहने का नाम 'सत्यभाषण' है)
   तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहोनातिमानिता। भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत॥
 तेज ,  क्षमा,  धैर्य,  बाहर की शुद्धि एवं किसी में भी शत्रुभाव का न होना और अपने में पूज्यता के अभिमान का अभाव- ये सब तो हे अर्जुन! दैवी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुए पुरुष के लक्षण हैं॥3॥
(श्रेष्ठ पुरुषों की उस शक्ति का नाम 'तेज' है कि जिसके प्रभाव से उनके सामने विषयासक्त और नीच प्रकृति वाले मनुष्य भी प्रायः अन्यायाचरण से रुककर उनके कथनानुसार श्रेष्ठ कर्मों में प्रवृत्त हो जाते हैं)

A list of major 26 divine qualities that should be cultivated for salvation

The Supreme Lord said:  Fearlessness,  purity of the inner psyche,  perseverance in the yog of Self-knowledge,  charity,  sense-restraint,  sacrifice,  study of the scriptures,  austerity,  honesty;  nonviolence, truthfulness,  absence of anger,  renunciation,  calmness,  abstinence from malicious talk,  compassion for all creatures,  freedom from greed,  gentleness,  modesty,  absence of fickleness,  splendor,  forgiveness, fortitude,  cleanliness,  absence of malice, and  absence of pride --- these are the (twenty-six) qualities of those endowed with divine virtues, O Arjun. (16.01-03)

   दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च। अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम्‌॥
 हे पार्थ! दम्भ,  घमण्ड और अभिमान तथा  क्रोध, कठोरता और अज्ञान भी- ये सब आसुरी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुए पुरुष के लक्षण हैं॥4॥
O Arjun, the marks of those who are born with demonic qualities are: Hypocrisy, arrogance, pride, anger, harshness, and ignorance. (16.04)
    दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता।
दैवी सम्पदा मुक्ति के लिए और आसुरी सम्पदा बाँधने के लिए मानी गई है।
Divine qualities lead to salvation (Moksh); the demonic qualities are said to be for bondage.

 द्वौ भूतसर्गौ लोकऽस्मिन्दैव आसुर एव च।
इस लोक में भूतों की सृष्टि यानी मनुष्य समुदाय दो ही प्रकार का है, एक तो दैवी प्रकृति वाला और दूसरा आसुरी प्रकृति वाला।
There are only two types of human beings, the wise and the ignorant: The divine, and the demonic


 Suffering is the destiny of the ignorant
   त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः। कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्‌॥
  काम, क्रोध तथा लोभ- ये तीन प्रकार के नरक के द्वार आत्मा का नाश करने वाले अर्थात्‌ उसको अधोगति में ले जाने वाले हैं। अतएव इन तीनों को त्याग देना चाहिए॥21॥
   Lust, anger, and greed are the three gates to hell

   तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ। ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि॥
 इससे तेरे लिए इस कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है। ऐसा जानकर तू शास्त्र विधि से नियत कर्म ही करने योग्य है॥24॥
 Therefore, let the scripture be your authority in determining what should be done and what should not be done. You should perform your duty following the scriptural injunction. (16.24)








No comments:

Post a Comment