Monday, March 10, 2014

श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ‍गीता-सार Gita in nutshell अध्याय 14 गुणत्रयविभागयोग

   # ज्ञानों में भी अतिउत्तम  परम ज्ञान #
  मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम्‌ ।  सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत
  हे अर्जुन! मेरी महत्‌-ब्रह्मरूप मूल-प्रकृति सम्पूर्ण भूतों की योनि है अर्थात गर्भाधान का स्थान है और मैं उस योनि में चेतन समुदायरूप गर्भ को स्थापन करता हूँ। उस जड़-चेतन के संयोग से सब भूतों की उत्पति होती है॥3॥
    सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः ।  तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ॥
 हे अर्जुन! नाना प्रकार की सब योनियों में जितनी मूर्तियाँ अर्थात शरीरधारी प्राणी उत्पन्न होते हैं, प्रकृति तो उन सबकी गर्भधारण करने वाली माता है और मैं बीज को स्थापन करने वाला पिता हूँ॥4॥
All beings are born from the union of spirit and matter
My material Nature (Prakriti, mother nature) is the womb of creation wherein I place the seed (of Consciousness or Purush) from which all beings are born, O Arjun. (See also 9.10) (14.03) Whatever forms are produced in all different wombs, O Arjun, the material Nature (Prakriti) is their (body-giving) mother; and I, the Spiritual Being or Purush, am the (seed or life-giving) father. (14.04)

    सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः । निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्‌ ॥
 हे अर्जुन! सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण -ये प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुण अविनाशी जीवात्मा को शरीर में बाँधते हैं॥5॥
Sattv or goodness, Rajas or passion, activity; and Tamas or ignorance, inertia --- these three modes (Ropes, Gunas) of material Nature (Prakriti) fetter the eternal individual soul (Jeev) to the body, O Arjun. (14.05)

     तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम्‌ । सुखसङ्‍गेन बध्नाति ज्ञानसङ्‍गेन चानघ ॥
 हे निष्पाप! उन तीनों गुणों में सत्त्वगुण तो निर्मल होने के कारण प्रकाश करने वाला और विकार रहित है, वह सुख के सम्बन्ध से और ज्ञान के सम्बन्ध से अर्थात उसके अभिमान से बाँधता है॥6॥
Of these, the mode of goodness (Sattv) is illuminating and good, because it is pure. Sattv fetters the living entity (Jeev) by attachment to happiness and knowledge, O sinless Arjun. (14.06)

    जो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्‍गसमुद्भवम्‌ । तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्‍गेन देहिनम्‌ ॥
 हे अर्जुन! रागरूप रजोगुण को कामना और आसक्ति से उत्पन्न जान। वह इस जीवात्मा को कर्मों और उनके फल के सम्बन्ध में बाँधता है॥7॥
Arjun, know that the mode of passion (Rajas) is characterized by intense craving and is the source of desire and attachment. Rajas binds the living entity (Jeev) by attachment to (the fruits of) work. (14.07)

  तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम्‌ । प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत ॥
  हे अर्जुन! सब देहाभिमानियों को मोहित करने वाले तमोगुण को तो अज्ञान से उत्पन्न जान। वह इस जीवात्मा को प्रमाद (इंद्रियों और अंतःकरण की व्यर्थ चेष्टाओं का नाम 'प्रमाद' है), आलस्य (कर्तव्य कर्म में अप्रवृत्तिरूप निरुद्यमता का नाम 'आलस्य' है) और निद्रा द्वारा बाँधता है॥8॥
Know, O Arjun, that the mode of ignorance (Tamas) --- deluder of the living entity (Jeev)--- is born of inertia. Tamas binds Jeev by carelessness, laziness, and excessive sleep. (14.08)

    सत्त्वं सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत । ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्युत ॥
 हे अर्जुन! सत्त्वगुण सुख में लगाता है और रजोगुण कर्म में तथा तमोगुण तो ज्ञान को ढँककर प्रमाद में भी लगाता है॥9॥
O Arjun, the mode of goodness attaches one to happiness (of learning and knowing the Eternal Being); the mode of passion attaches to action; and the mode of ignorance attaches to negligence by covering Self-knowledge. (14.09)

  रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत । रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा ॥
  हे अर्जुन! रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्त्वगुण, सत्त्वगुण और तमोगुण को दबाकर रजोगुण, वैसे ही सत्त्वगुण और रजोगुण को दबाकर तमोगुण होता है अर्थात बढ़ता है॥10॥
Goodness prevails by suppressing passion and ignorance; passion prevails by suppressing goodness and ignorance; and ignorance prevails by suppressing goodness and passion, O Arjun. (14.10)

When the light of Self-knowledge illuminates all the senses (or gates) in the body, then it should be known that goodness is predominant. (14.11) O Arjun, when passion is predominant; greed, activity, undertaking of selfish works, restlessness, excitement, etc. arise. (14.12) O Arjun, when inertia is predominant; ignorance, inactivity, carelessness, delusion, etc. arise. (14.13) 

जब यह मनुष्य सत्त्वगुण की वृद्धि में मृत्यु को प्राप्त होता है, तब तो उत्तम कर्म करने वालों के निर्मल दिव्य स्वर्गादि लोकों को प्राप्त होता है॥14॥
रजोगुण के बढ़ने पर मृत्यु को प्राप्त होकर कर्मों की आसक्ति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है तथा तमोगुण के बढ़ने पर मरा हुआ मनुष्य कीट, पशु आदि मूढ़योनियों में उत्पन्न होता है॥15॥

    कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम्‌ । रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम्‌ ॥
श्रेष्ठ कर्म का तो सात्त्विक अर्थात् सुख, ज्ञान और वैराग्यादि निर्मल फल कहा है, राजस कर्म का फल दुःख एवं तामस कर्म का फल अज्ञान कहा है॥16॥
   The fruit of good action is said to be beneficial and pure; the fruit of passionate action is pain; and the fruit of ignorant action is laziness. (14.16)
    सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च । प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च ॥
 सत्त्वगुण से ज्ञान उत्पन्न होता है और रजोगुण से निःसन्देह लोभ तथा तमोगुण से प्रमाद और मोह  उत्पन्न होते हैं और अज्ञान भी होता है॥17॥
  Self-knowledge arises from the mode of goodness; greed arises from the mode of passion; and negligence, delusion, and slowness of mind arise from the mode of ignorance. (14.17)


सत्त्वगुण में स्थित पुरुष स्वर्गादि उच्च लोकों को जाते हैं,
रजोगुण में स्थित राजस पुरुष मध्य में अर्थात मनुष्य लोक में ही रहते हैं और
तमोगुण के कार्यरूप निद्रा, प्रमाद और आलस्यादि में स्थित तामस पुरुष अधोगति को अर्थात कीट, पशु आदि नीच योनियों को तथा नरकों को प्राप्त होते हैं॥18॥

    नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति । गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति ॥
 जिस समय दृष्टा तीनों गुणों के अतिरिक्त अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता और तीनों गुणों से अत्यन्त परे सच्चिदानन्दघनस्वरूप मुझ परमात्मा को तत्त्व से जानता है, उस समय वह मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है॥19॥
When visionaries perceive no doer other than the powers of Eternal Being --- the modes (Gunas) of material Nature; and know That which is above and beyond these Gunas, then they attain salvation (Mukti).



  गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान्‌ । जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते ॥
 यह पुरुष शरीर की (बुद्धि, अहंकार और मन तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच भूत, पाँच इन्द्रियों के विषय- इस प्रकार इन तेईस तत्त्वों का पिण्ड रूप यह स्थूल शरीर प्रकृति से उत्पन्न होने वाले गुणों का ही कार्य है, इसलिए इन तीनों गुणों को इसी की उत्पत्ति का कारण कहा है) उत्पत्ति के कारणरूप इन तीनों गुणों को उल्लंघन करके जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और सब प्रकार के दुःखों से मुक्त हुआ परमानन्द को प्राप्त होता है॥20॥
When one transcends (or rises above) the three modes of material Nature that create (and/or originate in) the body, one attains immortality or salvation (Mukti) and is freed from the pains of birth, old age, and death. (14.20)


जो निरन्तर आत्म भाव में स्थित, दुःख-सुख को समान समझने वाला, मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण में समान भाव वाला, ज्ञानी, प्रिय तथा अप्रिय को एक-सा मानने वाला और अपनी निन्दा-स्तुति में भी समान भाव वाला है॥24॥
जो मान और अपमान में सम है, मित्र और वैरी के पक्ष में भी सम है एवं सम्पूर्ण आरम्भों में कर्तापन के अभिमान से रहित है, वह पुरुष गुणातीत कहा जाता है॥25॥
और जो पुरुष अव्यभिचारी भक्ति योग द्वारा मुझको निरन्तर भजता है, वह भी इन तीनों गुणों को भलीभाँति लाँघकर सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को प्राप्त होने के लिए योग्य बन जाता है॥26॥
(केवल एक सर्वशक्तिमान परमेश्वर वासुदेव भगवान को ही अपना स्वामी मानता हुआ, स्वार्थ और अभिमान को त्याग कर श्रद्धा और भाव सहित परम प्रेम से निरन्तर चिन्तन करने को 'अव्यभिचारी भक्तियोग' कहते हैं)
क्योंकि उस अविनाशी परब्रह्म का और अमृत का तथा नित्य धर्म का और अखण्ड एकरस आनन्द का आश्रय मैं हूँ॥27॥



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