Monday, August 5, 2013

कबीर के दोहे 7 kabir

70) जिन ढूँढा तिन पाइयां गहरे पानी पैठ-मै बपुरा बूड़न डरा रहा किनारे बैठ71) दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त, अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।
72)आग जो लगी समंद में, धुआं न परगट होय ,सो जाने जो जरमुआ, जाकी लागी होय

73) जैसे तिल में तेल है, ज्यूँ चकमक में आग , तेरा साईं तुझ में है, तू जाग सके तो जाग
74) )"बुरा जो देखण मैं चला, बुरा ना मिलया कोए ,जो मन खोजा अपना, तो मुझसे बुरा ना कोए"

75) ज्यों नैनो में पुतली, त्यों मालिक घट माहिं , मूरख लोग न जानहिं, बाहर ढूँढन जाहिँ।
76) रोज़ा करे, नमाज़ गुजारे कलमा इन बिष्ट न होई, सत्तर काबे इक दिल भीतर जे करी जाने
Kabirji on non-vegetarianism77) कबीर-माँस अहारी मानई, प्रत्यक्ष राक्षस जानि। ताकी संगति मति करै, होइ भक्ति में हानि।।78) कबीर-माँस खांय ते ढेड़ सब, मद पीवैं सो नीच। कुलकी दुरमति पर हरै, राम कहै सो ऊंच।।

मांस मछलियां खात है, सुरा पान सों हेत।
ते नर जड़ से जाहिंगे, ज्यों मूरी का खेत।
यह कूकर को भक्ष है, मनुष देह क्यों खाय। 
मुख में आमिष मेलहिं, नरक पड़े सो जाये।।

कबीर-माँस भखै औ मद पिये, धन वेश्या सों खाय।
जुआ खेलि चोरी करै, अंत समूला जाय।।5।।

कबीर-माँस माँस सब एक है, मुरगी हिरनी गाय।
आँखि देखि नर खात है, ते नर नरकहिं जाय।।6।।

कबीर-यह कूकर को भक्ष है, मनुष देह क्यों खाय।
मुखमें आमिख मेलिके, नरक परंगे जाय।।7।।


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