Sunday, May 26, 2013

सनातन तत्त्व ज्ञान

 इश्वर निर्गुण, निराकार है.
   उसके चैतन्य स्वरुप में (पुरुष) जब द्वैत भाव प्रकट होता है, तब सृष्टि की रचना होती है (प्रकृति). इस द्वैत भाव के निर्माण का मूल जो "संकल्प" है उसके चलते इस दृश्य सृष्टि में काल के सबसे विराट रूप को "कल्प" कहते हैं.
   सत्य में इश्वर न सृष्टि का निर्माण करता है, न पालन, और न विनाश. यह ३ भिन्न क्रियाएं अनुभव होने का कारण अविद्या है. जो यह अविद्या नहीं रही, तो हर प्रकार की भिन्नता और द्वैत से मुक्ति निश्चित है.
सर्व प्रथम हम जीव को समझ लें. हमारा यह दृश्य शरीर ४ भागों में विभाजित है -
स्थूल देह, सूक्ष्म देह, कारण देह, महाकारण देह.
 स्थूल देह हड्डी और मांस का बना है.
उसके भीतर सूक्ष्म देह है, जो अन्तःकारण चतुष्टय (मन, बुद्धि,चित  , अहंकार) से बना है. इसी में हमारे प्रारब्ध कर्म का भी वास है. पूर्व जन्‍म के कर्मों में जि‍न कर्मों का फल इस जन्‍म में भोगना पड़ता है वे प्रारब्‍ध कर्म कहे जाते हैं
उसके भीतर कारण देह है, जिसमे अतृप्त वासना तथा संचित कर्मों का निवास है. पूर्व जन्‍म में कि‍ये गये कर्म संचि‍त कर्म कहे जाते हैं
 इसी कारण देह के चलते जीव का जन्मा होता है (इसीलिए नाम है "कारण" देह, जो जन्मा तथा मृत्यु का कारण हो).
अंततः उसके परे जो है वह महाकारण देह है. यह सर्वव्यापी, चैतान्यमै है. इन सबमे से यदि हम स्थूल देह को निकाल दे, तो जो बचता है वह जीवात्मा है.
 उस जीवात्मा से यदि सूक्ष्म देह मुक्त हो गया (योग साधना से जब साधक उन्मनी अवस्था तक पहुंचता है, तब उसका मन  नाश  हो जाता है और कैवल्य समाधी में केवल महाकारण देह का अस्तित्व होता है, जिसे ब्रह्मा-साक्षात्कार कहते हैं)
  तोह जो महाकारण देह बचेगा वह ब्रह्मण है. ज्यों की इस महाकारण देह से अविद्या का आवरण अब मिट चूका है, वोह परब्रह्म स्वरुप है. येही इश्वर भी है.
  ध्यान रहे, यह महाकारण देह हम सभी में एक ही है, क्यूँ की यह इश्वर है. और इसी को ज्ञानी जन सबमे इश्वर का निवास है के भाव से कहते है.
  रहा प्रश्न भेद क्यूँ है, तोह भेद कहाँ है? महाकारण में द्वैत भाव का प्राकट्य कारण देह को जगाता है, जिसमे वासना के चलते सूक्ष्म देह अस्तित्व में आता है, जो जन्मा लेने हेतु किसी योनी के स्थूल देह को अपना वाहन बनता है. येही प्रक्रिया यदि उलटी दोहराई जाये तोह वह मुक्ति का मार्ग भी है.
  इन सबमें केवल महाकारण अथवा ब्रह्मण स्थायी है, बाकि सरे देह नश्वर हैइसीलिए उपनिषदों में यह भी कहा गया है --- "ब्रह्मा सत्यम, जगत मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः"
 -- अर्थात, "ब्रह्म ही सत्य है, जगत मिथ्या है, तथा जीव-ब्रह्म में कोई भेद नहीं है".
 आत्मन वह कारण देह है जो स्थूल देह धारण कर जीवात्मा बन जाता है. इस आत्मन से (कारण देह से) जब वासनाएं नष्ट हो जाती है, तो वह कारण देह महाकारण में विलीन हो जाता है (जीव का ब्रह्म में लय).
    वासना ही जन्मा-मृत्यु के निरंतर चक्र का कारण है. यदि यह वासना अपवित्र है, राजसी अथवा तामसी है तो जन्म पाप योनी या पशु योनी में होगा.
 यदि वासना शुद्ध है, पवित्र है, सात्विक है, तो जन्म पावन योनी में होगा (जैसे की धार्मिक मनुष्य के घर में). यदि इस जन्म को सत्य की खोज में तथा इश्वर भक्ति में लगाया जाये, यदि यह जीवन एक मुमुक्षु (मोक्ष को चाहने वाला) साधक बनकर व्यतीत किया जाये, और मृत्यु के समय केवल मोक्ष की अभिलाषा हो तो मोक्ष भी मिल सकता है.
 जीवन्मुक्ति भी संभव है.परन्तु अंत में इस मोक्ष की वासना को भी साधना की अग्नि में जला देना आवश्यक है, ठीक उसही प्रकार जैसे किसी के अंत्यसंस्कार के समय अग्नि प्रदान करने वाली लकड़ी को भी चिता में जलाया जाता है.
बंधन हमारा बनाया हुआ है. सत्य में ना बंधन है ना मोक्ष है. केवल   सत चित और आनंद मय ब्रह्मण है. परन्तु अविद्या के कारण हमें बंधन सत्य होने का आभास होता है. ठीक उसही प्रकार जिस प्रकार अन्धकार में एक रस्सी भी सर्प होने का आभास होता है और हमें डरा सकती है.
   याद रखिये --- "मन एव मनुष्याणं कारणं बंधा मोक्षयोहो" -- "यह मन ही हमारे बंधन तथा मोक्ष का कारण है" माया अथवा अविद्या का कोई अपना अस्तित्व नहीं होता.
 केवल विद्या के अभाव को अविद्या कहते हैं. उस अविद्या के चलते निर्माण होने वाले भ्रम को माया कहते हैं. माया जीव को बंधन में जकडे रखती हैं. परन्तु माया नाम की कोई चीज़ यह काम नहीं करती. केवल जीव की अविद्या उसे माया के प्रभावे में बंधने पर विवश कर देती है.
यदि जीव चाहे तोह इशी क्षण प्रत्यक्ष अनुभूति से इस बंधन से मुक्त हो परमानन्द का अनुभव कर सकता है.
- by kroihit99

अमृत्व के लिए आत्मज्ञान होना अनिवार्य है; क्योंकि आत्मा द्वारा ही आत्मा को ग्रहण किया जा सकता है। 'आत्म-दर्शन' के लिए श्रवण, मनन औरज्ञान की आवश्यकता होती है। कोई किसी को आत्म-दर्शन नहीं करा सकता। इसका अनुभव स्वयं ही अपनी आत्मा में करना होता है।' जिस प्रकार जल में घुले हुए नमक को नहीं निकाला जा सकता,उसी प्रकार उस महाभूत, अन्तहीन, विज्ञानघन परमात्मा में सभी आत्मांए समाकर विलुप्त होजाती हैं जब तक 'द्वैत' का भाव बना रहता है, तब तक वह परमात्मा दूरी बनाये रखता है, किन्तु 'अद्वैत' भाव के आते ही आत्मा, परमात्मा में लीन हो जाता है,अर्थात उसे अपनी आत्मा से ही जानने का प्रयत्न करो।'

2 comments:

  1. कम शब्दों मे सटीक ज्ञान। अतिसुंदर

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