Thursday, March 6, 2014

श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ‍गीता-सार Gita in nutshell अध्याय 12 भक्तियोग

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते । श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः ॥
मुझमें मन को एकाग्र करके निरंतर मेरे भजन-ध्यान में लगे हुए  जो भक्तजन अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त होकर मुझ सगुणरूप परमेश्वर को भजते हैं, वे मुझको योगियों में अति उत्तम योगी मान्य हैं॥2॥
 I consider the best yogis to be those ever steadfast devotees (Bhaktas) who worship with supreme faith by fixing their mind on Me as their personal God.  (12.02)

ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते। सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्‌ ॥
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः । ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ॥
 परन्तु जो पुरुष इन्द्रियों के समुदाय को भली प्रकार वश में करके मन-बुद्धि से परे, सर्वव्यापी, अकथनीय स्वरूप और सदा एकरस रहने वाले, नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी, सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को निरन्तर एकीभाव से ध्यान करते हुए भजते हैं, वे सम्पूर्ण भूतों के हित में रत और सबमें समान भाववाले योगी मुझको ही प्राप्त होते हैं॥3-4॥
 They also attain Me who worship the unchangeable, the inexplicable, the invisible, the omnipresent, the inconceivable, the unchanging, and the immovable Eternal Being (Brahm); restraining all the senses, even minded under all circumstances, and engaged in the welfare of all creatures. (12.03-04)

क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्‌ । अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते ॥
उन सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्म में आसक्त चित्तवाले पुरुषों के साधन में परिश्रम विशेष है क्योंकि देहाभिमानियों द्वारा अव्यक्तविषयक गति दुःखपूर्वक प्राप्त की जाती है॥5॥
Self-realization is more difficult for those who fix their mind on the impersonal, unmanifest, Eternal Being (Brahm); because, comprehension of the unmanifest by embodied beings is attained with difficulty. (12.05)

ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्नयस्य मत्पराः । अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ॥
परन्तु जो मेरे परायण रहने वाले भक्तजन सम्पूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके मुझ सगुणरूप परमेश्वर को ही अनन्य भक्तियोग से निरन्तर चिन्तन करते हुए भजते हैं। (इस श्लोक का विशेष भाव जानने के लिए गीता अध्याय 11 श्लोक 55 देखना चाहिए)॥6॥
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्‌ । भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्‌ ॥
 हे अर्जुन! उन मुझमें चित्त लगाने वाले प्रेमी भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्यु रूप संसार-समुद्र से उद्धार करने वाला होता हूँ॥7॥
But for those who worship Me with unswerving devotion as their personal God, offer all actions to Me, intent on Me as the Supreme, and meditate on Me; I swiftly become their savior --- from the world that is the ocean of death and transmigration --- whose thoughts are set on My personal form, O Arjun. (12.06-07)
The four paths to God
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय । निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः ॥
 मुझमें मन को लगा और मुझमें ही बुद्धि को लगा, इसके उपरान्त तू मुझमें ही निवास करेगा, इसमें कुछ भी संशय नहीं है॥8॥
Therefore, 1 focus your mind on Me, and let your intellect dwell upon Me alone (through meditation and contemplation). Thereafter, you shall certainly attain Me. (12.08)


अथ चित्तं समाधातुं न शक्रोषि मयि स्थिरम्‌ । अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय ॥
यदि तू मन को मुझमें अचल स्थापन करने के लिए समर्थ नहीं है, तो हे अर्जुन! अभ्यासरूप (भगवान के नाम और गुणों का श्रवण, कीर्तन, मनन तथा श्वास द्वारा जप और भगवत्प्राप्तिविषयक शास्त्रों का पठन-पाठन इत्यादि चेष्टाएँ भगवत्प्राप्ति के लिए बारंबार करने का नाम 'अभ्यास' है) योग द्वारा मुझको प्राप्त होने के लिए इच्छा कर॥9॥
If you are unable to focus your mind steadily on Me, then long to attain Me, O Arjun, 2 by practice of (any other) spiritual discipline (Saadhanaa) that suits you. (12.09)


अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव । मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ॥
यदि तू उपर्युक्त अभ्यास में भी असमर्थ है, तो केवल मेरे लिए कर्म करने के ही परायण  हो जा। इस प्रकार मेरे निमित्त कर्मों को करता हुआ भी मेरी प्राप्ति रूप सिद्धि को ही प्राप्त होगा॥10॥
If you are unable even to do any spiritual discipline (Saadhanaa), then be intent on performing your duty for Me. You shall attain perfection just 3 by working for Me (as an instrument, just to serve and please Me, without selfish motives).  (12.10)

अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः । सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्‌ ॥
यदि मेरी प्राप्ति रूप योग के आश्रित होकर उपर्युक्त साधन को करने में भी तू असमर्थ है, तो मन-बुद्धि आदि पर विजय प्राप्त करने वाला होकर सब कर्मों के फल का त्याग  कर॥11॥
If you are unable to work for Me, then 4 just surrender unto My will and renounce (the attachment to, and the anxiety for) the fruits of all work with subdued mind (by learning to accept all results, as God's grace (Prasaad)) with calmness. (12.11)


श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्धयानं विशिष्यते । ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्‌ ॥
मर्म को न जानकर किए हुए अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है,
ज्ञान से मुझ परमेश्वर के स्वरूप का ध्यान श्रेष्ठ है और
 ध्यान से सब कर्मों के फल का त्याग श्रेष्ठ है, क्योंकि त्याग से तत्काल ही परम शान्ति होती है॥12॥
(केवल भगवदर्थ कर्म करने वाले पुरुष का भगवान में प्रेम और श्रद्धा तथा भगवान का चिन्तन भी बना रहता है, इसलिए ध्यान से 'कर्मफल का त्याग' श्रेष्ठ कहा है)
The knowledge of scriptures is better than mere ritualistic practice;
meditation is better than scriptural knowledge;
 Tyaag, or renunciation of (the selfish attachment to) the fruits of work is better than meditation;
peace immediately follows Tyaag.  (12.12)

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च । निर्ममो निरहङ्‍कारः समदुःखसुखः क्षमी ॥
संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चयः। मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥
 जो पुरुष सब भूतों में द्वेष भाव से रहित,
स्वार्थ रहित सबका प्रेमी और
हेतु रहित दयालु है तथा ममता से रहित,
अहंकार से रहित,
 सुख-दुःखों की प्राप्ति में सम और
क्षमावान है अर्थात अपराध करने वाले को भी अभय देने वाला है तथा
जो योगी निरन्तर संतुष्ट है,
मन-इन्द्रियों सहित शरीर को वश में किए हुए है और
मुझमें दृढ़ निश्चय वाला है- वह मुझमें अर्पण किए हुए मन-बुद्धिवाला मेरा भक्त मुझको प्रिय है॥13-14॥
One who does not hate any creature, who is friendly and compassionate, free from the notion of "I" and "my", even-minded in pain and pleasure, forgiving; and the yogi who is ever content, who has subdued the mind, whose resolve is firm, whose mind and intellect are engaged in dwelling upon Me, who is devoted to Me, is dear to Me. (12.13-14)

यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः। हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः॥
 जिससे कोई भी जीव उद्वेग को प्राप्त नहीं होता और
जो स्वयं भी किसी जीव से उद्वेग को प्राप्त नहीं होता तथा
जो हर्ष, अमर्ष (दूसरे की उन्नति को देखकर संताप होने का नाम 'अमर्ष' है),
भय और उद्वेगादि से रहित है वह भक्त मुझको प्रिय है॥15॥
The one by whom others are not agitated and who is not agitated by others, who is free from joy, envy, fear, and anxiety, is also dear to Me. (12.15)

अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः। सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥
  जो पुरुष आकांक्षा से रहित,
बाहर-भीतर से शुद्ध  चतुर,
पक्षपात से रहित और
 दुःखों से छूटा हुआ है- वह सब आरम्भों का त्यागी मेरा भक्त मुझको प्रिय है॥16॥
One who is desireless, pure, wise, impartial, and free from anxiety; who has renounced the doership in all undertakings; such a devotee is dear to Me. (12.16)


यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्‍क्षति। शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः॥
 जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मों का त्यागी है- वह भक्तियुक्त पुरुष मुझको प्रिय है॥17॥
One who neither rejoices nor grieves, neither likes nor dislikes, who has renounced both the good and the evil, and is full of devotion; is dear to Me. (12.17)

समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः। शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्‍गविवर्जितः॥
 जो शत्रु-मित्र में और मान-अपमान में सम है तथा सर्दी, गर्मी और सुख-दुःखादि द्वंद्वों में सम है और आसक्ति से रहित है॥18॥
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्‌। अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः॥
 जो निंदा-स्तुति को समान समझने वाला, मननशील और जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही संतुष्ट है और रहने के स्थान में ममता और आसक्ति से रहित है- वह स्थिरबुद्धि भक्तिमान पुरुष मुझको प्रिय है॥19॥
ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते। श्रद्धाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः॥
 परन्तु जो श्रद्धायुक्त (वेद, शास्त्र, महात्मा और गुरुजनों के तथा परमेश्वर के वचनों में प्रत्यक्ष के सदृश विश्वास का नाम 'श्रद्धा' है) पुरुष मेरे परायण होकर इस ऊपर कहे हुए धर्ममय अमृत को निष्काम प्रेमभाव से सेवन करते हैं, वे भक्त मुझको अतिशय प्रिय हैं॥20॥

The one who remains the same towards friend or foe, in honor or disgrace, in heat or cold, in pleasure or pain; who is free from attachment; who is indifferent to censure or praise, quiet, content with whatever one has, unattached to a place (a country, or a house), calm, and full of devotion ---that person is dear to Me. (12.18-19)
But those faithful devotees are very dear to Me who set Me as their supreme goal and follow (or just sincerely try to develop) the above mentioned nectar of moral values. (12.20)

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