कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धोलोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः । ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः ॥
मैं लोकों का नाश करने वाला बढ़ा हुआ महाकाल हूँ। इस समय इन लोकों को नष्ट करने के लिए प्रवृत्त हुआ हूँ। इसलिए जो प्रतिपक्षियों की सेना में स्थित योद्धा लोग हैं, वे सब तेरे बिना भी नहीं रहेंगे अर्थात तेरे युद्ध न करने पर भी इन सबका नाश हो जाएगा॥32॥
The Supreme Lord said: I am death, the mighty destroyer of the world. I have come here to destroy all these people. Even without your participation in the war, all the warriors standing arrayed in the opposing armies shall cease to exist. (11.32)
निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ॥
You are only My instrument O Arjun.
तू तो केवल निमित्तमात्र बन जा॥33॥
We are only a divine instrument
तस्मात्त्वमुक्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रू:
अतएव तू उठ! यश प्राप्त कर और शत्रुओं को जीत
Therefore, you get up and attain glory. Conquer your enemies
कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे।
अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत् ॥
हे महात्मन्! ब्रह्मा के भी आदिकर्ता और सबसे बड़े आपके लिए वे कैसे नमस्कार न करें क्योंकि हे अनन्त! हे देवेश! हे जगन्निवास! जो सत्, असत् और उनसे परे अक्षर अर्थात सच्चिदानन्दघन ब्रह्म है, वह आप ही हैं॥37॥
O great soul --- bow to You, the original creator who is even greater than Brahmaa, the creator of material worlds? O infinite Lord, O God of all celestial rulers (Devas), O abode of the universe, You are both Sat (Eternal) and Asat (Temporal), and the Supreme Being (ParBrahm) that is beyond both Sat and Asat. (11.37)
त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणस्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् । वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप । ।
आप आदिदेव और सनातन पुरुष हैं, आप इन जगत के परम आश्रय और जानने वाले तथा जानने योग्य और परम धाम हैं। हे अनन्तरूप! आपसे यह सब जगत व्याप्त अर्थात परिपूर्ण हैं॥38॥
You are the primal God, the most ancient Person. You are the ultimate resort of all the universe. You are the knower, the object of knowledge, and the supreme abode. The entire universe is pervaded by You, O Lord of the infinite form. (11.38)
वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्क: प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
आप वायु, यमराज, अग्नि, वरुण, चन्द्रमा, प्रजा के स्वामी ब्रह्मा और ब्रह्मा के भी पिता हैं।
You are the controller of death, the fire, the wind, the water god, the moon god, and Brahmaa, the creator, as well as the father of Brahmaa.
नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया।
शक्य एवं विधो द्रष्टुं दृष्ट्वानसि मां यथा ॥
जिस प्रकार तुमने मुझको देखा है- इस प्रकार चतुर्भुज रूप वाला मैं न वेदों से, न तप से, न दान से और न यज्ञ से ही देखा जा सकता हूँ॥53॥
This (four-armed) form of Mine that you have just seen cannot be seen even by study of the Vedas, or by austerity, or by acts of charity, or by the performance of rituals. (11.53)
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन । ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप ॥
परन्तु हे परंतप अर्जुन! अनन्य भक्ति (अनन्यभक्ति का भाव अगले श्लोक में विस्तारपूर्वक कहा है।) के द्वारा इस प्रकार चतुर्भुज रूपवाला मैं प्रत्यक्ष देखने के लिए, तत्व से जानने के लिए तथा प्रवेश करने के लिए अर्थात एकीभाव से प्राप्त होने के लिए भी शक्य हूँ॥54॥
मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः ।निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव ॥
हे अर्जुन! जो पुरुष केवल मेरे ही लिए सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को करने वाला है, मेरे परायण है, मेरा भक्त है, आसक्तिरहित है और सम्पूर्ण भूतप्राणियों में वैरभाव से रहित है (सर्वत्र भगवद्बुद्धि हो जाने से उस पुरुष का अति अपराध करने वाले में भी वैरभाव नहीं होता है, फिर औरों में तो कहना ही क्या है), वह अनन्यभक्तियुक्त पुरुष मुझको ही प्राप्त होता है॥55॥
However, through single-minded devotion alone, I can be seen in this form, can be known in essence, and also can be reached, O Arjun. (11.54) One who does all works for Me, and to whom I am the supreme goal; who is my devotee, who has no attachment, and is free from enmity towards any being --- attains Me, O Arjun. (11.55)
मैं लोकों का नाश करने वाला बढ़ा हुआ महाकाल हूँ। इस समय इन लोकों को नष्ट करने के लिए प्रवृत्त हुआ हूँ। इसलिए जो प्रतिपक्षियों की सेना में स्थित योद्धा लोग हैं, वे सब तेरे बिना भी नहीं रहेंगे अर्थात तेरे युद्ध न करने पर भी इन सबका नाश हो जाएगा॥32॥
The Supreme Lord said: I am death, the mighty destroyer of the world. I have come here to destroy all these people. Even without your participation in the war, all the warriors standing arrayed in the opposing armies shall cease to exist. (11.32)
निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ॥
You are only My instrument O Arjun.
तू तो केवल निमित्तमात्र बन जा॥33॥
We are only a divine instrument
तस्मात्त्वमुक्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रू:
अतएव तू उठ! यश प्राप्त कर और शत्रुओं को जीत
Therefore, you get up and attain glory. Conquer your enemies
कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे।
अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत् ॥
हे महात्मन्! ब्रह्मा के भी आदिकर्ता और सबसे बड़े आपके लिए वे कैसे नमस्कार न करें क्योंकि हे अनन्त! हे देवेश! हे जगन्निवास! जो सत्, असत् और उनसे परे अक्षर अर्थात सच्चिदानन्दघन ब्रह्म है, वह आप ही हैं॥37॥
O great soul --- bow to You, the original creator who is even greater than Brahmaa, the creator of material worlds? O infinite Lord, O God of all celestial rulers (Devas), O abode of the universe, You are both Sat (Eternal) and Asat (Temporal), and the Supreme Being (ParBrahm) that is beyond both Sat and Asat. (11.37)
त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणस्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् । वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप । ।
आप आदिदेव और सनातन पुरुष हैं, आप इन जगत के परम आश्रय और जानने वाले तथा जानने योग्य और परम धाम हैं। हे अनन्तरूप! आपसे यह सब जगत व्याप्त अर्थात परिपूर्ण हैं॥38॥
You are the primal God, the most ancient Person. You are the ultimate resort of all the universe. You are the knower, the object of knowledge, and the supreme abode. The entire universe is pervaded by You, O Lord of the infinite form. (11.38)
वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्क: प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
आप वायु, यमराज, अग्नि, वरुण, चन्द्रमा, प्रजा के स्वामी ब्रह्मा और ब्रह्मा के भी पिता हैं।
You are the controller of death, the fire, the wind, the water god, the moon god, and Brahmaa, the creator, as well as the father of Brahmaa.
नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया।
शक्य एवं विधो द्रष्टुं दृष्ट्वानसि मां यथा ॥
जिस प्रकार तुमने मुझको देखा है- इस प्रकार चतुर्भुज रूप वाला मैं न वेदों से, न तप से, न दान से और न यज्ञ से ही देखा जा सकता हूँ॥53॥
This (four-armed) form of Mine that you have just seen cannot be seen even by study of the Vedas, or by austerity, or by acts of charity, or by the performance of rituals. (11.53)
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन । ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप ॥
परन्तु हे परंतप अर्जुन! अनन्य भक्ति (अनन्यभक्ति का भाव अगले श्लोक में विस्तारपूर्वक कहा है।) के द्वारा इस प्रकार चतुर्भुज रूपवाला मैं प्रत्यक्ष देखने के लिए, तत्व से जानने के लिए तथा प्रवेश करने के लिए अर्थात एकीभाव से प्राप्त होने के लिए भी शक्य हूँ॥54॥
मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः ।निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव ॥
हे अर्जुन! जो पुरुष केवल मेरे ही लिए सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को करने वाला है, मेरे परायण है, मेरा भक्त है, आसक्तिरहित है और सम्पूर्ण भूतप्राणियों में वैरभाव से रहित है (सर्वत्र भगवद्बुद्धि हो जाने से उस पुरुष का अति अपराध करने वाले में भी वैरभाव नहीं होता है, फिर औरों में तो कहना ही क्या है), वह अनन्यभक्तियुक्त पुरुष मुझको ही प्राप्त होता है॥55॥
However, through single-minded devotion alone, I can be seen in this form, can be known in essence, and also can be reached, O Arjun. (11.54) One who does all works for Me, and to whom I am the supreme goal; who is my devotee, who has no attachment, and is free from enmity towards any being --- attains Me, O Arjun. (11.55)
No comments:
Post a Comment