Sunday, March 9, 2014

श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ‍गीता-सार Gita in nutshell अध्याय 13 क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग

   अर्जुन  उवाच प्रकृतिं  पुरुषं  चैव  क्षेत्रम  क्षेत्रक्षमेव एतद् वेंदितुं  इच्छामि  जननं    जनेयं  च  केसव
Arjuna said: O my dear Krishna, I wish to know about prakriti [nature], purusha [the enjoyer], and the field and the knower of the field, and of knowledge and the object of knowledge.
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते। एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः॥
 श्री भगवान बोले- हे अर्जुन! यह शरीर 'क्षेत्र'  इस नाम से कहा जाता है और इसको जो जानता है, उसको 'क्षेत्रज्ञ' इस नाम से उनके तत्व को जानने वाले ज्ञानीजन कहते हैं॥1॥
The Supreme Personality of Godhead said: This body, O son of Kunti, is called the field, and one who knows this body is called the knower of the field.

O scion of Bharata, you should understand that I am also the knower in all bodies, and to understand this body and its knower is called knowledge. That is My opinion.
 क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत। क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम॥
हे अर्जुन! तू सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ अर्थात जीवात्मा भी मुझे ही को जान और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ को अर्थात विकार सहित प्रकृति और पुरुष का जो तत्व से जानना है  वह ज्ञान है- ऐसा मेरा मत है॥
 O Arjun, know Me to be the creator of all the creation. The true understanding of both the creator and the creation is considered by Me to be the transcendental (or metaphysical) knowledge.

          महाभूतान्यहङ्‍कारो बुद्धिरव्यक्तमेव च । इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः ॥
  पाँच महाभूत, अहंकार, बुद्धि और मूल प्रकृति भी तथा दस इन्द्रियाँ, एक मन और पाँच इन्द्रियों के विषय अर्थात शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध॥5॥
    इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्‍घातश्चेतना धृतिः । एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम्‌ ॥
  तथा इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, स्थूल देहका पिण्ड, चेतना (शरीर और अन्तःकरण की एक प्रकार की चेतन-शक्ति।) और धृति -- इस प्रकार विकारों (पाँचवें श्लोक में कहा हुआ तो क्षेत्र का स्वरूप समझना चाहिए और इस श्लोक में कहे हुए इच्छादि क्षेत्र के विकार समझने चाहिए।) के सहित यह क्षेत्र संक्षेप में कहा गया॥
The primary material Nature (Aadi Prakriti or Avyakt), cosmic intellect (Mahat), "I" consciousness or ego, five basic elements, ten organs, mind, five sense objects; and desire, hatred, pleasure, pain, the physical body, consciousness, and resolve --- thus the entire field has been briefly described with its transformations.
     अमानित्वमदम्भित्व- महिंसा क्षान्तिरार्जवम् । आचार्योपासनं शौचं  स्थैर्यमात्मविनिग्रहः
  श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव, दम्भाचरण का अभाव, किसी भी प्राणी को किसी प्रकार भी न सताना, क्षमाभाव, मन-वाणी आदि की सरलता, श्रद्धा-भक्ति सहित गुरु की सेवा, बाहर-भीतर की शुद्धि, अन्तःकरण की स्थिरता और मन-इन्द्रियों सहित शरीर का निग्रह॥

      इन्द्रियार्थेषु वैराग्यम- नहंकार एव च । जन्ममृत्युजराव्याधि दुःखदोषानुदर्शनम् ॥
   इस लोक और परलोक के सम्पूर्ण भोगों में आसक्ति का अभाव और अहंकार का भी अभाव, जन्म, मृत्यु, जरा और रोग आदि में दुःख और दोषों का बार-बार विचार करना॥

असक्तिरनभिष्वङ्गः  पुत्रदारगृहादिषु । नित्यं च समचित्तत्व- मिष्टानिष्टोपपत्तिषु 
पुत्र, स्त्री, घर और धन आदि में आसक्ति का अभाव, ममता का न होना तथा प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति में सदा ही चित्त का सम रहना॥
 मयि चानन्ययोगेन  भक्तिरव्यभिचारिणी । विविक्तदेशसेवित्व- मरतिर्जनसंसदि ॥
मुझ परमेश्वर में अनन्य योग द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति
(केवल एक सर्वशक्तिमान परमेश्वर को ही अपना स्वामी मानते हुए स्वार्थ और अभिमान का त्याग करके, श्रद्धा और भाव सहित परमप्रेम से भगवान का निरन्तर चिन्तन करना 'अव्यभिचारिणी' भक्ति है)
तथा एकान्त और शुद्ध देश में रहने का स्वभाव और विषयासक्त मनुष्यों के समुदाय में प्रेम का न होना॥
 अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं  तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् । एतज्ज्ञानमिति प्रोक्त- मज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥
अध्यात्म ज्ञान में
(जिस ज्ञान द्वारा आत्मवस्तु और अनात्मवस्तु जानी जाए, उस ज्ञान का नाम 'अध्यात्म ज्ञान' है)
नित्य स्थिति और तत्वज्ञान के अर्थरूप परमात्मा को ही देखना- यह सब ज्ञान है और
जो इसके विपरीत है वह अज्ञान है- ऐसा कहा है॥
Humility,   modesty,     nonviolence,      forgiveness,       honesty,      service to guru,      purity (of thought, word, and deed),   steadfastness,   self-control; and    aversion towards sense objects,    absence of ego; constant reflection on pain and suffering inherent in birth, old age, disease, and death; (13.07-08)
detached attachment with family members, home, etc.;      unfailing calmness upon attainment of the desirable and the undesirable; and     unswerving devotion to Me through single-minded contemplation, taste for solitude,   distaste for social gatherings and gossips;     steadfastness in acquiring the knowledge of Eternal Being (Brahm), and     seeing the omnipresent Supreme Being (ParBrahm, Krishn) everywhere --- this is said to be knowledge. That which is contrary to this is ignorance. (13.09-11)
            ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि  यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते । अनादि मत्परं ब्रह्म  न सत्तन्नासदुच्यते ॥
  जो जानने योग्य है तथा जिसको जानकर मनुष्य परमानन्द को प्राप्त होता है, उसको भलीभाँति कहूँगा। वह अनादिवाला परमब्रह्म न सत्‌ ही कहा जाता है, न असत्‌ ही॥
I shall fully describe the object of knowledge --- knowing which one attains immortality. The beginningless Supreme Being (ParBrahm) is said to be neither eternal (Sat) nor temporal (Asat).

           सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ।सर्वतः श्रुतिमल्लोके  सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥
 वह सब ओर हाथ-पैर वाला, सब ओर नेत्र, सिर और मुख वाला तथा सब ओर कान वाला है, क्योंकि वह संसार में सबको व्याप्त करके स्थित है। 
(आकाश जिस प्रकार वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी का कारण रूप होने से उनको व्याप्त करके स्थित है, वैसे ही परमात्मा भी सबका कारण रूप होने से सम्पूर्ण चराचर जगत को व्याप्त करके स्थित है) The Eternal Being (Brahm) has His hands, feet, eyes, head, mouth, and ears everywhere, because He is all-pervading and omnipresent.
                 सर्वेन्द्रियगुणाभासं  सर्वेन्द्रियविवर्जितम् । असक्तं सर्वभृच्चैव  निर्गुणं गुणभोक्तृ च ॥
     वह सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयों को जानने वाला है, परन्तु वास्तव में सब इन्द्रियों से रहित है तथा आसक्ति रहित होने पर भी सबका धारण-पोषण करने वाला और निर्गुण होने पर भी गुणों को भोगने वाला है॥
He is the perceiver of all sense objects without the physical sense organs; unattached, and yet the sustainer of all; devoid of three modes (Gunas) of material Nature (Prakriti), and yet the enjoyer of the Gunas of Prakriti (by becoming a living entity (Jeev)).
                  बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च । सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञयं दूरस्थं चान्तिके च तत्‌ ॥
    वह चराचर सब भूतों के बाहर-भीतर परिपूर्ण है और चर-अचर भी वही है। और वह सूक्ष्म होने से अविज्ञेय (जैसे सूर्य की किरणों में स्थित हुआ जल सूक्ष्म होने से साधारण मनुष्यों के जानने में नहीं आता है, वैसे ही सर्वव्यापी परमात्मा भी सूक्ष्म होने से साधारण मनुष्यों के जानने में नहीं आता है) है तथा अति समीप में (वह परमात्मा सर्वत्र परिपूर्ण और सबका आत्मा होने से अत्यन्त समीप है) और दूर में (श्रद्धारहित, अज्ञानी पुरुषों के लिए न जानने के कारण बहुत दूर है) भी स्थित वही है॥

He is inside as well as outside all beings, animate and inanimate. He is incomprehensible because of His subtlety. And because of His omnipresence, He is very near --- residing in one’s inner psyche; as well as far away --- in the Supreme Abode (ParamDhaam).


          अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्‌ । भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ॥
   वह परमात्मा विभागरहित एक रूप से आकाश के सदृश परिपूर्ण होने पर भी चराचर सम्पूर्ण भूतों में विभक्त-सा स्थित प्रतीत होता है 
(जैसे महाकाश विभागरहित स्थित हुआ भी घड़ों में पृथक-पृथक के सदृश प्रतीत होता है, वैसे ही परमात्मा सब भूतों में एक रूप से स्थित हुआ भी पृथक-पृथक की भाँति प्रतीत होता है) 
तथा वह जानने योग्य परमात्मा विष्णुरूप से भूतों को धारण-पोषण करने वाला और रुद्ररूप से संहार करने वाला तथा ब्रह्मारूप से सबको उत्पन्न करने वाला है॥
He is undivided, and yet appears to exist as if divided in beings. He, the object of knowledge, appears as: Brahmaa, the creator; Vishnu, the sustainer; and Shiva, the destroyer of all beings.


          ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते । ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम्‌ ॥
   वह परब्रह्म ज्योतियों का भी ज्योति  एवं माया से अत्यन्त परे कहा जाता है। वह परमात्मा बोधस्वरूप, जानने के योग्य एवं तत्वज्ञान से प्राप्त करने योग्य है और सबके हृदय में विशेष रूप से स्थित है॥
ParBrahm, the Supreme Person, is the source of all light. He is said to be beyond darkness (of ignorance or Maya). He is the Self-knowledge, the object of Self-knowledge, and seated in the inner psyche (or the causal heart as consciousness  of all beings, He is to be realized by Self-knowledge (Jnaan, Taaratamya Jnaan, Brahm-vidyaa).
      इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः । मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते ॥
  इस प्रकार क्षेत्र (श्लोक 5-6 में विकार सहित क्षेत्र का स्वरूप कहा है) तथा ज्ञान (श्लोक 7 से 11 तक ज्ञान अर्थात ज्ञान का साधन कहा है।) और जानने योग्य परमात्मा का स्वरूप (श्लोक 12 से 17 तक ज्ञेय का स्वरूप कहा है) संक्षेप में कहा गया। मेरा भक्त इसको तत्व से जानकर मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है॥
Thus the creation as well as the knowledge and the object of knowledge have been briefly described by Me. Understanding this, My devotee attains My supreme abode.
       प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्‌यनादी उभावपि । विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान्‌ ॥
   प्रकृति और पुरुष- इन दोनों को ही तू अनादि जान और राग-द्वेषादि विकारों को तथा त्रिगुणात्मक सम्पूर्ण पदार्थों को भी प्रकृति से ही उत्पन्न जान॥
कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते । पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ॥
 कार्य (आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध -इनका नाम 'कार्य' है) और
करण (बुद्धि, अहंकार और मन तथा श्रोत्र, त्वचा, रसना, नेत्र और घ्राण एवं वाक्‌, हस्त, पाद, उपस्थ और गुदा- इन 13 का नाम 'करण' है) को उत्पन्न करने में हेतु प्रकृति कही जाती है और
जीवात्मा सुख-दुःखों के भोक्तपन में अर्थात भोगने में हेतु कहा जाता है॥
A description of the supreme spirit, spirit, material nature, and the individual souls

Know that both the material Nature (Prakriti) and the Spiritual Being (Purush) are beginningless. All manifestations and three dispositions of mind and matter, called modes or Gunas, are born of Prakriti. Prakriti is said to be the cause of production of the physical body and the eleven organs (of perception and action). Purush (Consciousness, Spirit) is said to be the cause of experiencing pleasure and pain.

    पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्‍क्ते प्रकृतिजान्गुणान्‌ । कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ॥
 प्रकृति में 
(प्रकृति शब्द का अर्थ गीता अध्याय 7 श्लोक 14 में कही हुई भगवान की त्रिगुणमयी माया समझना चाहिए) 
स्थित ही पुरुष प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थों को भोगता है और इन गुणों का संग ही इस जीवात्मा के अच्छी-बुरी योनियों में जन्म लेने का कारण है। 
(सत्त्वगुण के संग से देवयोनि में एवं रजोगुण के संग से मनुष्य योनि में और तमो गुण के संग से पशु आदि नीच योनियों में जन्म होता है।)॥21॥
 Spiritual Being (Purush) enjoys three modes (Gunas) of material Nature (Prakriti) by associating with Prakriti. Attachment to the Gunas (due to ignorance caused by previous Karm) is the cause of birth of the living entity (Jeev) in good and evil wombs. (13.21)
      उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः । परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः ॥
 इस देह में स्थित यह आत्मा वास्तव में परमात्मा ही है। वह साक्षी होने से उपद्रष्टा और यथार्थ सम्मति देने वाला होने से अनुमन्ता, सबका धारण-पोषण करने वाला होने से भर्ता, जीवरूप से भोक्ता, ब्रह्मा आदि का भी स्वामी होने से महेश्वर और शुद्ध सच्चिदानन्दघन होने से परमात्मा- ऐसा कहा गया है॥22॥
Eternal Being (Brahm, Atma, Spirit) in the body is also called the witness, the guide, the supporter, the enjoyer, the great Lord, and also the Supreme Self. (13.22)


   य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह । सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते ॥
 इस प्रकार पुरुष को और गुणों के सहित प्रकृति को जो मनुष्य तत्व से जानता है
(दृश्यमात्र सम्पूर्ण जगत माया का कार्य होने से क्षणभंगुर, नाशवान, जड़ और अनित्य है तथा
 जीवात्मा नित्य, चेतन, निर्विकार और अविनाशी एवं शुद्ध, बोधस्वरूप, सच्चिदानन्दघन परमात्मा का ही सनातन अंश है, इस प्रकार समझकर सम्पूर्ण मायिक पदार्थों के संग का सर्वथा त्याग करके परम पुरुष परमात्मा में ही एकीभाव से नित्य स्थित रहने का नाम उनको 'तत्व से जानना' है)
वह सब प्रकार से कर्तव्य कर्म करता हुआ भी फिर नहीं जन्मता॥23॥
They who truly understand Spiritual Being (Purush) and the material Nature (Prakriti) with its three modes (Gunas) are not born again, regardless of their way of life. (13.23)


    ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना । अन्ये साङ्‍ख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ॥
 उस परमात्मा को कितने ही मनुष्य तो शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि से ध्यान (जिसका वर्णन गीता अध्याय 6 में श्लोक 11 से 32 तक विस्तारपूर्वक किया है) द्वारा हृदय में देखते हैं,
अन्य कितने ही ज्ञानयोग (जिसका वर्णन गीता अध्याय 2 में श्लोक 11 से 30 तक विस्तारपूर्वक किया है) द्वारा और
 दूसरे कितने ही कर्मयोग (जिसका वर्णन गीता अध्याय 2 में श्लोक 40 से अध्याय समाप्तिपर्यन्त विस्तारपूर्वक किया है) द्वारा देखते हैं अर्थात प्राप्त करते हैं॥24॥
Some perceive the supersoul (Paramaatma) in their inner psyche through mind and intellect that have been purified either by meditation, or by metaphysical knowledge, or by KarmaYog. (13.24)

   यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति । तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥
 जिस क्षण यह पुरुष भूतों के पृथक-पृथक भाव को एक परमात्मा में ही स्थित तथा उस परमात्मा से ही सम्पूर्ण भूतों का विस्तार देखता है, उसी क्षण वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है॥
The moment one discovers the diverse variety of beings and their ideas abiding in One and coming out from That alone, one attains the Supreme Being (ParBrahm). (13.30)
क्षेत्र को जड़, विकारी, क्षणिक और नाशवान तथा क्षेत्रज्ञ को नित्य, चेतन, अविकारी और अविनाशी जानना ही 'उनके भेद को जानना' है
   क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा । भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम्‌ ॥
 इस प्रकार क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद को
 (क्षेत्र को जड़, विकारी, क्षणिक और नाशवान तथा क्षेत्रज्ञ को नित्य, चेतन, अविकारी और अविनाशी जानना ही 'उनके भेद को जानना' है) 
तथा कार्य सहित प्रकृति से मुक्त होने को जो पुरुष ज्ञान नेत्रों द्वारा तत्व से जानते हैं, वे महात्माजन परम ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं॥34॥

They attain the Supreme, who perceive the difference between creation (or the body) and the creator (or the Atma) with the eye of Self-knowledge, and know the technique (by using any one of the five paths---Selfless service, Knowledge, Devotion, Meditation, and Surrender) of liberation of the living entity (Jeev) from the trap of divine illusory energy (Maya). (13.34)


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